मन में कसक सी है
किसी कोने में एक हूक उठती है और
गले में फांस बनकर चुभती रहती है
पीड़ा से आँख भर आती है
माँ पूछती है कि ठीक हो
गला रुंध आता है
हंस कर कहती हूँ
हाँ सब बढ़िया है
नई जगह है ना
सुबह आँखें चुराती हूँ सबसे
तकिये को उल्टा करके उठती हूँ
ताकि भीगा मन नीचे छुप जाये
झूठी हंसी होठों पर चिपका कर रख पाना मुश्किल है
फिसल कर कब गिर जाती है
पता नहीं चलता
नम आँखों से फिर से बोलना
सब ठीक है
सब ठीक ही तो है
सिवाय इस के
कि मैं झूठी हूँ.
Wednesday, September 08, 2010
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